मै सूरज को मुट्ठी में रखकर ,
चाँद तारों को झकझोरने की चाह रखता हूँ |
आकाश को पाताल भेजकर , नदियों को गागर में समेटकर ,
समंदर को पिने की चाह रखता हूँ |
सारा ब्रह्माण्ड कांप उठे और, कण -कण थर्रा जाए
मै ऐसे हुन्क्कार की चाह रखता हूँ |
सुना है स्वर्ग भी है कहीं इस जग में ,मै उस स्वर्ग को
इस धरा पर, लाने की चाह रखता हूँ ।
मै आसमान के तारों को ,धागे में गूंथने की चाह रखता हूँ |
मै जीवन में मृत्यु के भय को जितने की चाह रखता हूँ |
हो तांडव नृत्य , और आ जाए प्रलय ,
मै नवनिर्माण के लिए ,एक महाविनाश की चाह रखता हूँ ।
मै सूरज को मुट्ठी में रखकर ,
चाँद तारों को झकझोरने की चाह रखता हूँ |
तरणी कुमार
तारीख -१०-०४-२००९
Thursday, April 9, 2009
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भाई तुमने अच्छा लिखा है , पर इसमैं कुछ गुस्सा लग रहा है , तुम्हारी चाह मैं इतना गुस्सा क्यों है , या कहूँ की मैं ही अब दुनिया जैसी है वैसी बचाना चाहता हूँ न की कुछ और लडाई करने की ,
ReplyDeleteये वर्ड वेरिफिकेशन भी हटा लो भाई
why u hv written this type of rubbies Poem.....
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