Saturday, April 4, 2009

देखा है

बहारों के मौसम में फूलों को झड़ते हुए देखा है
बुढापे में बाप की कमर टूटते हुए देखा है ||
जिंदगी को गर गम का सागर भी कहूँ ,
सागर को गागर में सिमटते हुए देखा है ||
लाख परेशान हो सच लेकिन ,
झूठ का पलडा झुकते हुए देखा है ||

बहारों के मौसम में फूलों को जड़ते हुए देखा है ||

लाख रुसवा करे जिंदगी लेकिन
हिम्मत वालों को हमने सीना ताने जीते हुए देखा है ||

बाघ और चिताओं के शिकारी को भी ,
सियारों का शिकार होते देखा है
बिषधर के मस्तक पर रहकर भी ,
मणि को हमने टिमटिमाते हुए देखा है ||
अभाओं की आंधी में भी मेहनत की लौ से जगमगते हुए देखा है ||

तरणी कुमार शर्मा
तारीख /०१/२००३

No comments:

Post a Comment