Thursday, April 9, 2009

मेरी चाह !!

मै सूरज को मुट्ठी में रखकर ,
चाँद तारों को झकझोरने की चाह रखता हूँ |

आकाश को पाताल भेजकर , नदियों को गागर में समेटकर ,
समंदर को पिने की चाह रखता हूँ |

सारा ब्रह्माण्ड कांप उठे और, कण -कण थर्रा जाए
मै ऐसे हुन्क्कार की चाह रखता हूँ |

सुना है स्वर्ग भी है कहीं इस जग में ,मै उस स्वर्ग को
इस धरा पर, लाने की चाह रखता हूँ

मै आसमान के तारों को ,धागे में गूंथने की चाह रखता हूँ |
मै जीवन में मृत्यु के भय को जितने की चाह रखता हूँ |

हो तांडव नृत्य , और जाए प्रलय ,
मै नवनिर्माण के लिए ,एक महाविनाश की चाह रखता हूँ

मै सूरज को मुट्ठी में रखकर ,
चाँद तारों को झकझोरने की चाह रखता हूँ |


तरणी कुमार
तारीख -१०-०४-२००९

2 comments:

  1. भाई तुमने अच्छा लिखा है , पर इसमैं कुछ गुस्सा लग रहा है , तुम्हारी चाह मैं इतना गुस्सा क्यों है , या कहूँ की मैं ही अब दुनिया जैसी है वैसी बचाना चाहता हूँ न की कुछ और लडाई करने की ,
    ये वर्ड वेरिफिकेशन भी हटा लो भाई

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  2. why u hv written this type of rubbies Poem.....

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